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Shashtika Shali Pinda Sweda

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षष्टिकशाली पिंडस्वेद-साठी के चावल से पिंड बनाकर स्वेद करना षाष्टिकशाली पिंडस्वेद है। यह एक अत्यंत उपयोग स्वेद है। (Shashtika Shali Pinda Sweda) शास्त्राधार से कुछ विकसित स्वरूप में -इसका केरल में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। केरल में ‘अवर किषी’ नाम से यह प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ-अवर-षष्टिकशाली और किषी-पिंड से षष्टिकशाली पिंडस्वेद होता है। पिंडस्वेद के द्रव्य चरकानुसार पहले कहे गये हैं। अब इसकी प्रायोगिक विधि दी जाती है।

Shashtika Shali Pinda Sweda
Shashtika Shali Pinda Sweda

षष्टिकशाली पिंड स्वेद – (प्रायोगिक विधि)

औषधि सिद्धता – १२ पल (४८ तोला) बलामूल लेकर उसे अच्छी तरह पानी से धोकर स्वच्छ कर बारीक बारीक टुकड़ों में विभक्त करें। इन्हें १२ प्रस्थ ७६८ तोला) जल में डालकर उबाल कर ३ प्रस्थ (१६२ तोला) शेष रख क्वाथ बना लें। इनमें से आधा क्वाथ (६६ तोला) समान भाग दूध में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। इस मिश्रण में आधा प्रस्थ साठी चावल (३२ तोला) डालकर उसे अच्छी तरह पका लें। (Shashtika Shali Pinda Sweda) जो चावल स्वेदार्थ उपयोग करना है वह पहले धोना नहीं चाहिये। पका हुआ चावल अच्छा घोटकर श्लक्ष्ण बनावे। अब आठ वस्त्रखंड (१८’ x १८” आकार के) लेकर उन पर पका हुआ भात समान मात्रा में रखकर आठ पोटलियां बांध कर तैयार करें। पोटली ऐसी बांधे कि उनका ऊपर का भाग पर्याप्त चौड़ा और हाथ में पकड़ने के लिए योग्य हो। इनको स्वेदनार्थ उपयोग के लिए रख दे। अब आधा क्वाथ जो शेष रखा गया था (Shashtika Shali Pinda Sweda) उसे पुनः समान भाग दूध के साथ मिलाकर सेगड़ी पर मंद अग्नि पर यह मिश्रण चढ़ा दें, और इसमें पोटलिया रख कर उन्हें गरम होने दें।

आमलकी कल्क-‘तल’ निर्माण –

आतुर को पिंडस्वेद के पहले सिर पर तल धारण करना होता है। यह तल आमलकी कल्क से निर्माण किए औषधि का होता है इसकी विधि ऐसी है (Shashtika Shali Pinda Sweda) कि पिंडस्वेद के पहले दिन-रात में १० तोला आमलकी चूर्ण और २० तोला छाछ को इकट्ठा कर पका लें। बिल्कुल अच्छी तरह पक कर गाढ़ा हो जाए तब उसे अच्छी तरह झलक्ष्ण पीसकर शीत होने के लिए रख दें। यह कल्क दूसरे दिन सिर पा तलधारणार्थ उपयोग में लायें। अब आतुर को पिंडस्वेद के लिए स्वेद भवन में लाना चाहिए ।

पूर्वकर्म –

आतूर के सभी कपडे उतार कर उसे कौपीन पहनावे। (Shashtika Shali Pinda Sweda) फिर उसे काष्ठ टेकान पर या द्रोणी में बिठावे। मगल वाचन करावे। फिर संपूर्ण शरीर का अभ्यंग करावे। प्रश्चामा सिंग धार करें। सिर और शरीर के लिए अलग-अलग अभ्यंग तैल का प्रयोग होता हैत्रि के लिए क्षीरबलातैल, चंदनबला लाक्षादि तैल, शतावरी तैल, लाक्षादि तैल इत्यादि तैलो का प्रयोग होता है। शरीराभ्यंग के लिए सहचरादि तैल, क्षीरखला तैल चाडगडला लाक्षादि तैल, धान्वन्तर तैल, कार्यासास्यादि तैल, रास्नाद्विगुण भागादि तैल, पंचगुण तैल इत्यादि को भी तेल दोषानुसार प्रयोग करें। आधा घंटा तक अभ्यंग करने के चाव-आपली कल्क को चक्रिकाकार बनाकर उसे सिर पर ब्रह्मरंध के स्थान पर रख उसमें एक आलवाल बनाए और आलबाल में चंदनबला लाक्षादि तैल या कोई भी गलतील भरकर निर्गुडीपत्र इत्यादि वातहरपत्र आलवाल पर रख स्वस्तिक बंधन ऐसा बांध दें कि गांठ कनपटी पर आये। यह तलधारण कहलाता है। (Shashtika Shali Pinda Sweda) शिरोभ्यंग और तलधारण अच्चत आवश्यक विधि है, क्योंकि पिंडस्वेद में करीब १।। घंटे तक सतत उष्णसंस्कार संपूर्ण शारीर पर होता है। अतएव इस गरमी से शिर को बचाने के लिए शिर पर तलधारण करना होता है। यदि न करें तो मूर्च्छा, भ्रम, दाह, तिभिरदर्शन, तृष्णादि पित्तलक्षण उत्पन्न होने हैं यह अनुभव है। यदि एकांग पिंडस्वेद करना हो तो वह तलधारण के बिना भी किया जा सकता है, किन्तु अभ्यंग प्रत्येक पिंडस्वेद में करना ही चाहिये। (Shashtika Shali Pinda Sweda) अब आतुर पिंडस्वेद के लिए तैयार हो गया- उसका स्वेद करें।

प्रधान कर्म –

पिंड स्वेद में उपर्युक्त औषधि से मिश्रण में डुबाई हुई पोटली के द्वाना मेंज करते हैं। आतुर के दोनों बाजू में दो-दो कर्मचारी खड़े रहें और एक कर्मचारी रखें क्वाश्चमिश्रण के पास खड़ा रहे। (Shashtika Shali Pinda Sweda) ये चार कर्मचारी कर्मदक्ष, सुहृद और महाभूति से काम करने वाले होने चाहिये। इनको स्वेद के टेकनिक में निष्णात करना साविध। दो कर्मचारी कटि के ऊपर तक अर्थात् कटि, स्फिग् पार्श्व, पृष्ठ, वंक्ष, अंस, कान, मन्या तक के शरीर अवयव पर स्वेदन के लिए, और दो कर्मचारी कटि के नीचे आघात कटि, स्फिगू उरु, जानु, जंघा, प्रपाद तक के अवयवों पर स्वेदन करने के लिए दाचे और बाएं बाजू पर अनुकूल अवस्था में खड़े रहें। फिर क्वाथ से उष्ण पोटली लेकर प्रथम अपने हाथ पर रख सहृदयासहृदयता का ज्ञान कर आतुर के गात्रों पर विशिष्ट शस्त कौशल्य से घुमा घुमा कर स्वेद करें। कटि के ऊपर के अवयवों में कर्मचारी मन्या से नीचे कटि तक अनुलोम गति से स्वेद करें। और दूसरे दो कर्मचारी कटि से नीचे अनुलोम गति से स्वेद करें। (Shashtika Shali Pinda Sweda) स्वेद में गरम पोटलियों से घर्षण के साथ दक्षिण हाथ गति से आगे बढ़ाये और बाएं हाथ हाथ से उस अवयव को योग्य अवस्था में रखें। इस तरह संघियों पर वर्तलाकार और दीर्घ अवयवों पर दीर्घाकार स्वेद करें। जब पोटलियाँ ठंडी होनी लगे तो पांचवा कर्मचारी शेष चार पोटलियों को द्रव में से उन्हें दे दे और ठंडी पोटलियां पुनः देवमिश्रण में गरम करने के लिए रख दे। इस तरह पांच से दस मिनिट में बार बार पोटलियों अदल बदल कर सतत गरम पोटलियों से स्वेद करें। स्वेद करते समय यह ध्यान रहे कि त्वचा पर दग्धव्रण हो इतनी गरम पोटली न रहे और न एकदम अनुष्ण हो जाए ऐसी ठंडी हो। एक समान तापमान रखना आवश्यक है। पोटली को पकड़कर स्वेद करने की सतत् अभ्यास से ही आदत होती है। अन्यथा पहले बहुत गरम होने से पकड़ नहीं सकते, और बाद में पोटली ठंडी हो जाती है। पिंडस्वेद सर्व शरीर में अच्छी तरह हो जाये इसलिए अभ्यंगोक्त ७ अवस्थाए इसमें भी देनी चाहिये। (Shashtika Shali Pinda Sweda) अर्थात् आतुर को प्रथम बिठाकर, फिर पृष्ठ पर लिटाकर, फिर वाम पार्श्वपर लिटाकर, फिर वक्षोदरपर लिटाकर, फिर दक्षिण पार्श्व पर लिटाकर, फिर पुनः पृष्ठ पर लिटाकर और पुनः बिठा कर स्वेदन करें। इन सब अवस्थाओं में १० से १५ मिनिट तक इस तरह कुल ७० से १०५ मिनिट तक स्वेदन करें। अर्थात् पिंडस्वेद एक से डेढ़ घंटा या पवने दो घंटे तक किया जा सकता है। पोटली के कपडे से पष्टिकशाली पायस स्त्रवित होकर प्रत्येक स्वेद की गतियों में आतुर के शरीर पर उसका घर्षण होता है और औषधि सिद्ध. इस शाली से शरीर पर संस्कार होता है। इतने समय में प्रायः सेगड़ी पर रखा हुआ द्रव भी पूर्ण होता है। (Shashtika Shali Pinda Sweda) जब पिंडस्वेद पूर्ण हो जाये तो पोटलियां खोलकर उसमें रहे हुए शाली चूर्णों को हाथ में लेकर अभ्यंग उद्धर्तन प्रकार से आतुर शरीर पर उसे रगड़े। इस तरह ५-१० मिनिट करने के बाद शरीर पर से इस लेप को स्वच्छ करें ।

पश्चात्कर्म –

षष्टिक शाली को शरीर पर से हटाने के लिए नारियल के पत्ते, एरंड के पत्ते या कपड़े का उपयोग करें। (Shashtika Shali Pinda Sweda) फिर शिर से तैल निकाल कर कपड़े से सिर को साफ करें। फिर गरम पानी में नेपकिन जैसे वस्त्रखंड डुबो कर, निचोड़ कर उनसे शरीर सफ 7 को स्पंज कर साफ करें। केरलीय वैद्य स्वेद के बाद पुनः तैलाभ्यंग स्नान करवाते हैं। स्नान के लिए गरम पानी का उपयोग किया जाता है।

यह चिकित्सा प्रतिदिन या एक दिनांत से करें, और ७ दिन, ६ दिन, ११, १४ दिन, २३ दिन या २८ दिन तक यथानुकूल आगे चलावे। इस चिकित्सा काल में पिर्षिचिल या स्नेहधारा के स्वेद के सभी परिहार विषय पालन करें।

यह स्वेद वातव्याधि में विशेषतः श्वास, पंगु, अवबाहुक शोष, में लाभप्रद होता है। रक्त प्रकोपज रोग में भी यह लाभप्रद है।

अन्नलेपन –

अन्नलेपन यह प्रदेह-या उपनाह के प्रकार का स्वेद है। (Shashtika Shali Pinda Sweda) इसका भी केरल में अच्छा उपयोग किया जाता है। यह षष्टिक शालीपिंड स्वेद के समान ही है, केवल फर्क यह है कि इसमें पोटली बनाने के बदले षष्टिकशाली का प्रत्यक्ष लेपन किया जाता है।

बलामूल तीन पल (१२ तोले) लेकर स्वच्छ कर टुकड़े कर, ३ प्रस्थ (१६२ तोला) जल में डालकर उबाल कर चतुर्थांश ४८ तोला तक शेष क्वाथ करें। इसको मोटे कपडे से छान ले और समान भाग गाय का दूध डाल कर, (Shashtika Shali Pinda Sweda) इस मिश्रण में (१६ तोला) एक कुडव षष्टिकशाली पकावे। अच्छी तरह पकने पर उसे पीसकर झलक्ष्ण बनावे ।

आतुर को प्रथम, सिर पर तथा सगर्वा पर विधिवत् अभ्यंग करावे। (Shashtika Shali Pinda Sweda) फिर द्रोणी में या टेबल पर लिटावे। फिर दो कर्मचारी दो बाजू में खड़े रहकर झलक्ष्ण तथा गरम चावल को थोडा-थोड़ा हाथ में लेकर, आतुर के शरीर पर लगाकर गरम गरम अवस्था में ही उस पर उद्वर्तन की तरह रगड़ता जाये। आतुर को किसी भी प्रकार प्रका से पीड़ा हो, या दाह हो इस तरह लेप न करें। सुखपूर्वक लेपन करावे। अंश से नीचे ही इस तरह लेपन किया जाता है। यह प्रक्रिया एक से डेढ़ घंटे तक चलावे। प्रत्येक मांसपेशी, हाथ, पांव पृष्ठ, कटिपर भलीभांति गरम चावल से रगड़ता रहे। जब चावल पूरा हो जाये तब पिंडस्वेद के समान ही शरीर पर से लेपयुक्त भात के अवशिष्ट भाग को स्वच्छ कर पुनः तैल से अभ्यंग कराकर, गरम पानी से स्नान करावे।

यह षष्टिकशाली पिंडस्वेद के समान गुणकारी है। (Shashtika Shali Pinda Sweda) इसमें संस्कृत चावल का प्रत्यक्ष गात्र पर मर्दन होता है। शोष, कार्यक्षय और शूल में यह लाभप्रद है। केरलीय वैद्य वात और रक्त से दुष्ट विकारों में तथा आमवात के कुछ प्रकारों में (Rheumatuid Arthatis) और जहां दाह की प्रधानता है ऐसे रोगों में इसे उपयुक्त मानते हैं। यदि बहुत ज्यादा दाह हो तो भात पकाते समय घी मिलाना चाहिये। आमवात के प्रकारों में गोधूम की दूध में पकाकर, या दूध और गेहूं का चूर्ण इनसे भी लेपन किया जा सकता है। बलामूल क्वाथ आवश्यक नहीं है।

पिंडस्वेद की तरह यह क्रिया ७ दिन या १४ दिन तक की जा सकती हैं।

अन्नलेप, पिंडस्वेद और स्नेहधारा स्वेद के चिकित्सा काल में आतुर को प्रतिदिन गंधर्वहस्तादि क्वाथ २ ।। तोला दो बार पिलावे। (Shashtika Shali Pinda Sweda) आवश्यक हो तो सायं. क्वाथ के साथ १ से २ तोला एरंड तैल दे। कोष्ठ शुद्धि पर विशेष ध्यान रखे।

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