व्याख्या आयुर्वेदीय चिकित्सा में पंचकर्म का एक विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान है [Basti in panchakarma] और में बस्ति चिकित्सा’ का ऐसा ही अतिशय महत्त्वपूर्ण स्थान है। बस्तिचिकित्सा आयुर्वेद की सारे चिकित्साजगत् के लिए ऐसी देन है जो अपने गुणों एवं उपयोगिता के गौरवास्पद स्थान विभूषित करती है। ‘बस्ति’ यह शब्द बस्तिदान में उपयुक्त यंत्र – अर्थात् प्राणियों के मूत्राशय (Urinary bladder) के शाम से प्रचलित हुआ है। बस्ति-अर्थात् औषधियों का आभ्यंतर प्रविष्ट कराना, इस विधि से बस्ति यह नाम दिया गया है। शब्द की वैव्याकरणीय व्याख्या निम्नलिखित प्रकार की है। यह
वसु-निवासे बस्-आच्छादने वस्-वासने सुरभिकरणे, बनित-वातेः आवृणोति मूत्र। वस्-तिच् । नाथेाधोभागे मूत्राधारे स्थाने (पु.) ।।
औषध दानार्थे द्रव्यभेदे ।।
अर्थात् वस- शब्द निवास-रहने के अर्थ में आच्छादन करने के अर्थ में या सुगंधी
कल्कता के अर्थ में उपयोगी है। बस्तिशब्द-बस्ति जो मूत्र को आवरण करता है (धारण करता है) वम् में तिच् प्रत्यय से बना है, जो नाभि के अधोभाग में रहने वाले मूत्राधार स्थान के लिए, औषधदान के साधन द्रव्यभेद के लिए प्रयुक्त है और सुश्रुत में भी आगे इसी प्रकार से इनकी व्याख्या और निरुक्ति की हुई मिलती है। मूत्राधार या बस्ति के द्वारा जो औषधि (मुद्यादि मार्ग से) प्रविष्ट की जाती है, जो शरीर में वास करती है, (अमुक काल तक रहती है) त्यहा बस्ति कहलाती है। Basti in panchakarma बस्ति शब्द संस्कृत में पुल्लिगी है।

सामान्य परिचय
सामान्यतः बस्ति यह शब्द सभी बस्तियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिसमें निक्का, अनुवासन, उत्तरवस्ति आदि बस्तियों का समावेश होता है। तथापि “बस्ति” शब्द साक ने केवल निरूण बस्ति के लिए प्रयुक्त किया हुआ भी मिलता है। “बस्ति व्यापत् मिद्धि जानक सिद्धि स्थान का सातवाँ अध्याय है जिसमें चरक ने केवल निरूह बस्ति की व्याप और उनकी चिकित्सा का वर्णन किया है। इस पर टीका करते हुए चक्रपाणि और नेरखा है कि “बस्ति” शब्द निरूह के लिए लिया गया है। इसी तरह ‘शिरोबस्ति की विधि के लिए भी बस्ति शब्द प्रयुक्त हुआ मिलता है।
बस्ति वह प्रक्रिया है जिसमें प्रायः गुदमार्ग से औषधि सिद्ध क्वाथ, स्नेह, क्षीर, [मांसास रक्तादि इस्यों को पक्वाशय में प्रविष्ट किया जाता है। यहाँ प्रायः शब्दप्रयोग करने का कारण यह है Basti in panchakarma कि गुदमार्ग के अतिरिक्त मुत्रमार्ग तथा अपत्यपथ से भी बस्ति दी जाती है। जिसे उत्तरबस्ति कहा जाता है, इतना ही नहीं बल्कि व्रण में भी व्रणमुख से बस्ति दी जा सकती है और ऐसे व्रण-बस्ति के नेत्र के प्रमाण का सुश्रुत में वर्णन किया हुआ मिलता है। अतएव बस्ति की व्याख्या अरुणदत्त और शार्ङ्गधर ने की है, उस प्रकार “बस्ति के द्वारा वी जाने के कारण बस्ति कहलाती है” यही उचित है। गुद से पक्वाशय में, मूत्र मार्गो से मूत्राशय में. अपत्यमार्ग से गर्भाशय में या व्रणदि मार्गों में औषधियों को पहुंचाने के लिए यह आवश्यक है कि द्रव्यों को दबाव के साथ (Pressure से) अंदर ढकेला जाये। पहले जमाने में जब कि रबर का आविष्कार नहीं हुआ था, Basti in panchakarma तब इस कार्य में गाय, बैल, बकरे, भैंस इत्यादि णणियों के मूत्राशय का (बस्ति) उपयोग एक संकोच प्रसरणशील थैली के रूप में किया जाता था, जिससे यह ‘कर्म बस्ति’ कहा जाने लगा और अब यह नाम रूढ़ हुआ है।
यह बस्तिकर्म स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचनादि सभी कर्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। इसका कारण यह है कि स्नेहादि कर्मों की उपयोगिता मर्यादित है, लेकिन बस्ति व्यापक कर्मकारी है। प्रायः सभी लोगों की कल्पना होती है कि बस्ति यह (Enema) एनीमा का एक नामांतर है, परन्तु बस्ति को आधुनिक वैद्य शास्त्र का ‘एनीमा’ समझना एक बड़ी भूल है। बस्ति के अनेक प्रकारों में से एक प्रकार एनीमा हो सकता है किंतु सभी बस्ति कर्म एनीमा के अंतर्गत नहीं जा सकते। सामान्यतः एनीमा मल को निकालने के लिए दिया जाता है। Basti in panchakarma आधुनिक वैद्यशास्त्र में कुछ एनीमा पोषण के लिए दिये जाने का विधान है-लवण एवं ग्लुकोज का इस तरह उपयोग करना आधुनिक शास्त्र-सम्मत है, तथापि इनका उपयोग आज नहिवत् हुआ है और इनके साथ भी एनीमा का उद्देश्य और कार्मुकत्व मर्यादित है। जहां आयुर्वेदीय बस्ति की कल्पना, उद्देश्य और उपयोगिता अत्यंत व्यापक है।
अनेक औषधियों के संयोग के कारण बस्ति दोषों का शोधन करती है, संशमन भी करती हैं, मलों की संग्राही भी होती हैं, Basti in panchakarma क्षीण शुक्रवाले आतुरों का शुक्र बढ़ाती हैं, कृशों को इस्थूल करती है, स्थूलों को कृश करती है, नेत्रों की ज्योति बढ़ाती है, वयः स्थापन करती है-अर्थात तारुण्य को चिरकाल तक रखकर बुढ़ापा देर से लाती है, वर्ण को उज्ज्वल करती है, बल को बढ़ाती है। आयुष्य को कायम रखकर आरोग्य की वृद्धि करती है-इत्यादि अनेक गुणों को करती है। इस तरह बस्ति एक अतीव व्यापक, शरीर के प्रत्येक अवयव को कुछ-न-कुछ लाभ पहुंचाने वाली प्रशस्त चिकित्सा है।
बस्ति यह वात की प्रधान चिकित्सा है, तथापि वात, पित्त, कफ तीनों दोषों में, रक्त में, दोषों के संसर्ग में, सत्रिपात में यह लाभप्रद होती है। शरीर में रोग प्रसार के शाखा कोष्ठ, और मर्म ये तीन मार्ग होते हैं। Basti in panchakarma इन तीन मार्गों में दोषों को प्रसृत करने में वायु की बहुत ज्यादा उत्तरदायिता होती है। क्योंकि स्वेद, मल, मूत्र, पित्त कफादि के संहनन का तथ वहन का विक्षेपण का कार्य वायु ही शरीर में करता है और उस वायु के लिए बसि समान महत्ता प्राप्त है, तथा कुछ विद्वान तो उसे ‘संपूर्ण चिकित्सा’ भी मानते है।” परमश्रेष्ठ चिकित्सा कही गई है। अतएव बस्ति को सभी चिकित्सा की आधी चिकित्सा
बस्ति प्रकार
बस्ति के अनेक प्रकार है और अनेकविध आधारों पर अनेक भेद किये जा सकते इन सब भेदों का नीचे वर्णन किया जाता है।

क) अधिष्ठान भेद-बस्ति जिस अधिष्ठान में दी जाती है उस आधार पर बस्ति के
निम्नलिखित ४ भेद हैं।
1. पक्वाशयगत-जो गुद मार्ग से दी जाती है, और औषध द्रव्य का अधिष्ठान पक्वाशय होता वह पक्वाशयगत बस्ति है।
2. गर्भाशयगत-स्त्रियो में गर्भाशय के दोषों को दूर करने के लिए दी जानेवाली, अपत्यपथ से गर्भाशय में औषधों को पहुंचानेवाली बस्ति गर्भाशयगत बस्ति है।
3. मूत्राशयगत-मूत्रमार्ग (मेद्र या योनि) से मूत्राशय में जो बस्ति पहुंचाई जाती
है-वह मूत्राशयगत बस्ति है। गर्भाशयगत और मूत्राशयगत बस्ति को ‘उत्तर बस्ति’ ऐसी संज्ञा दी जाती है।
4. व्रणगत-व्रणों में व्रण मुख से शोधन, रोपणार्थ औषधि द्रव्यों को पहुंचाना व्रणगत बरित है।
(ख) द्रव्यभेद-बस्ति प्रयुक्त द्रव्य क्वाथ है, या स्नेह है, इस आधार पर बस्ति के दो प्रकार होते हैं।
1. निरूहबस्ति-जिस बस्ति में क्वाथ की प्रधानता होती है Basti in panchakarma उसे निरूह बस्ति कहते हैं।
निरूह बस्ति का ही दूसरा नाम आस्थापन बस्ति हैं। दोषों को शरीर में से बाहर निकाल देने के कारण अथवा रोगों को हरण करने के कारण इसे ‘निरूह’ कहा जाता है और वयस्थापन करने के कारण या आयु स्थापन करने के कारण इसे आस्थापन कहते है। कर्म के आधार पर निरूह के अनेक भेद होते हैं। उनका विचार ‘कार्मुकता के आधार’ पर भेद बताते हुए किया है। Basti in panchakarma निरूह का ही एक विकल्प माधुतैलिक बस्ति माना गया है और यापन बस्ति, सिद्धबस्ति, तथा युक्तरथ बस्ति इसके पर्याय कहे है।” जिस बस्ति में मधु और तैल ये प्रधान द्रव्य होते हैं उसे माधुतैलिक बस्ति कहते हैं और युद्धादि के लिए रथ में बैठकर जाना हो, हाथी घोड़ों की सवारी करते हुए जाना हो (बैलगाड़ी, घोड़े, ऊंट, सायकल, स्कूटर, मोटर, ट्रेन, हवाई जहाज आदि सब वाहनों का इनमें उपलक्षण से समावेश करना चाहिये)- ऐसी अवस्था में भी जो बस्ति निशिद्ध नहीं है, ली जा सकती है, उसे युक्तरथ बस्ति कहते हैं। शरीर में जो बल उत्पन्न करती है, वर्ण प्रसादन करती है, Basti in panchakarma और सैकड़ों रोगो को मिटाती है- (सिद्ध करती है) इस कारण सिद्धबस्ति कहलाती है।” यापन बस्ति वह है जो सब काल में दी जा सकती है, आयुष्य का यापन करती है-बढ़ाती है।
2. अनुवासन बस्ति-जिस बस्ति में स्नेह मुख्य द्रव्य होता हैं उसे अनुवासन बस्ति कहते है। सुश्रुत ने इसे ‘स्नैहिक बस्ति’ ऐसा शब्द प्रयोग भी किया है। अनुवासन बस्ति को स्नेहबस्ति का एक प्रकार माना है। Basti in panchakarma अनुवासन की निरुक्ति इस तरह की गई है-जो अनुवासन अंदर रहते हुए भी कोई दोष उत्पन्न नहीं करती, तथा अनुदिन-प्रतिदिन दी जा सकती है वह अनुवासन बस्ति है। स्नेह बस्ति के ३ भेद मात्रा के आधार से किये जाते है।
3. स्नेह बस्ति-वय के अनुसार निरूह की जो मात्रा होती है, उससे एक चतुर्थांश (पादावकृष्ट) स्नेह बस्ति में स्नेह दिया जाता है। यदि द्वादशप्रसृत्ति प्रमाण को निरूह बस्ति हो तो स्नेह बस्ति ३ प्रसृति की समझनी चाहिये। डल्हण ने टीका में कहा है कि-स्नेहबस्ति की उत्तम मात्रा ६ पल (२४ तोला), मध्यम मात्रा ३ पल (१२ तोला) और कनीयसी मात्रा १।।
पल (६ तोला) की होती है। स्नेहबस्ति का आधा आधा भाग कर यही प्रमाण उपलब्ध होता है। इसे ही चक्रपाणि ने स्नेहबस्ति ६ पल स्नेह की, अनुवासन बस्ति ३ पल स्नेह की और मात्रा बस्ति १ ।। पल स्नेह की होती है है ऐसा कहा है।
२. मात्रा बस्ति-हस्व स्नेहपान की जो मात्रा कही गई हैं वह (अर्थात् छः घंटे में जरणयोग्य स्नेह) मात्राबस्ति में स्नेह की मात्रा होनी चाहिये। Basti in panchakarma ” सुश्रुत ने इसे अनुवासन बस्ति का प्रकार मानकर अनुवासन का आधा प्रमाण-मात्रा-बस्ति
